मलिक असगर हाशमी / नई दिल्ली-देहरादून
जल-जंगल तौकीर आलम लोढ़ा का स्कूल और टेलीविजन है. जब वह उत्तराखंड के राजाजी नेशनल पार्क में बड़े हो रहे थे, तब उन्होंने अपना समय जानवरों और कीड़े-मकौड़ों को देखते हुए बिताया. तभी से वह पक्षियों के रंग और उनकी आवाज पहचानने की कोशिश करने लगे. नील गाय नीली होती है या पीली ? कैसे बोलती है? यह सब उन्हें तभी समझ आने लगा था.
तौकीर अब 28 वर्ष से अधिक के हो गए हैं. उन्हें पहली बार जंगल में अपनी भूमिका के बारे में 18 साल की उम्र में पता चला. तब उन्होंने पहली बार एक जोड़ी दूरबीन का जुगाड़ किया, जिसके लेंस के माध्यम से उन्होंने पहली बार एक लाल रंग की बुलबुल देखी, जिसकी छोटी शिखा और ऊपरी भाग था. उसके बाद से तौकीर एक नई दुनिया की खोज में लग गए.
खानाबदोश वन गुर्जर जनजाति से ताल्लुक रखने वाले आलम कहते हैं, ‘‘जब मैं बच्चा था, तब मैंने राजाजी नेशनल पार्क में पक्षी को कई बार देखा, लेकिन यह मेरे लिए सिर्फ एक पक्षी था. फिर दूरबीन के माध्यम से इसके व्यवहार और गतिविधियों का अध्ययन करने लेगा.’’
शुरूआत में तौकीर आलम राजाजी नेशनल पार्क में बेंगलुरु के भारतीय विज्ञान संस्थान में पारिस्थितिक विज्ञान केंद्र के शोधकर्ताओं की सहायता कर रहे थे, जो बीज का अध्ययन करने के लिए पार्क आए हुए थे. उसी दौरान तौकरी की दिलचस्पी पक्षियों के प्रति जगी. फिर इस बारे में सीखने की ललक बढ़ती गई. बेंगलुरु के शोधकर्ताओं की मदद से उन्होंने अध्ययन किया कि कैसे ट्रांसेक्ट सर्वेक्षण और बीज फैलाव की निगरानी की जाती है. आलम ने देहरादून के नेचर साइंस इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं से पक्षियों की गतिविधियों पर नजर रखना सीखा.
तौकीर की उत्तराखंड में है खास पहचान
उसके बाद तौकीर आलम उत्तराखंड के सर्वाधिक चर्चित बर्ड वॉचर्स में नेचर साइंस इनिशिएटिव के क्षेत्र समन्वयक के रूप में काम करने लगे. यह बर्डवॉच दुनिया भर में पक्षियों को देखने का एक महत्वपूर्ण ऑनलाइन डेटाबेस माना जाता है.
तौकीर शोधकर्ताओं के साथ काम करते हैं. दौरे पर आए शोधार्थियांे को जंगल भ्रमण कराते हैं और डेटा का विश्लेषण करने में मदद करते हैं. खाली समय में वह सरकारी स्कूलों के बच्चों को जंगल की सैर पर ले जाते हैं. इसके अलावा बर्डवॉचिंग उत्सवों के दौरान उत्तराखंड राज्य के पर्यटन विभाग के साथ सहयोग करते हैं.
नेचर साइंस इनिशिएटिव के रमन कुमार कहते हैं, ‘‘आलम के बारे में असामान्य बात यह है कि वह स्वेच्छा से काम करते हैं. कोई भी उन्हें कुछ करने के लिए नहीं कहता. खुद ही करने लगते हैं. आलम में सीखने की प्रवृत्ति बेजोड़ है. प्रारंभ में, उन्होंने सहायक के रूप में हमारी मदद की. अब वे हमारे शोध सदस्य बन गए हैं. वह जरूरी उपकरणों को आसानी से संभाल लेते हैं. कंप्यूटर में फील्ड डेटा दर्ज करते हैं. कठफोड़वा के वीडियो फुटेज का विश्लेषण करते हैं. गांवों में नेचर क्लब शुरू करने मंे हमारा भरपूर साथ देते हैं. और यह सब केवल अपने दम पर करते हैं.
ई-बर्डस दुनिया की सबसे बड़ी जैव विविधता से संबंधित नागरिक विज्ञान परियोजना है. उसके मुताबिक, उत्तराखंड में पक्षियों की 650से अधिक प्रजातियां हैं. ई-बर्डस के बारे में बता दूं कि यह ऑर्निथोलॉजी की कॉर्नेल लैब द्वारा प्रबंधित है. ई-बर्डस द्वारा इस पर पोस्ट किए गए डेटा का उपयोग संरक्षणवादियों, वैज्ञानिकों द्वारा पक्षियों की प्रजातियों की गिनती और रिकॉर्ड रखने एवं नक्शे बनाने के लिए किया जाता है. कहते हैं, दुनिया भर से हर साल 100मिलियन से अधिक पक्षी देखे जाते हैं, जिनका रिकॉर्ड, क्षेत्र आदि के बारे में तमाम जानकारियां ई-बर्डर्स रखता है, जो कोई छोटी-मोटी बात नहीं है.
सीखी बर्डिंग की कला
बर्डवॉचिंग के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है. ब्रॉडबिल जैसे पक्षियों को देखने में अक्सर घंटों लग जाते हैं. कभी-कभी लक्षित पक्षी को देखे बिना ही वापस लौटना पड़ता है. आलम चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘‘यह चुनौती भी है और मजा भी.’’ अगर आपको वह सब कुछ ढूंढना है, जो आप आसानी से चाहते हैं, तो आप इसके लिए चिड़ियाघर जा सकते हैं.
2016 से ई-बर्डस का अध्ययन करने वाले तौकरी आलम 460 से अधिक पक्षियों को देखने और पहचानने वाले उत्तराखंड में पांचवें स्थान पर हैं.
आलम का परिवार और जंगल
राजाजी पार्क की स्थापना से बहुत पहले यह जंगल उनके दादा-परदादा और अन्य वन गुर्जरों का आश्रय स्थल था. गर्मियों के दौरान, भैंस चरवाहों की यह खानाबदोश जनजाति ऊपरी हिमालय के घास के मैदानों में चली जाती थी. मानसून के बाद उनमें से कुछ राजाजी पार्क के पास लौट आते थे. 1983 तक जीवन की इस कठिन दिनचर्या का पालन किया गया. जब राजाजी पार्क को एक राष्ट्रीय उद्यान के रूप में अधिसूचित किया गया और वन गुर्जरों को जंगल से बाहर कर दिया गया. इस क्रम में 2003 में एक बड़ा व्यवधान आया. उनमें से कुछ वन गुर्जरों को हरिद्वार जिले के गैंडी खाता में स्थानांतरित होने को मजबूर किया गया.
तब यह ऐसी स्थिति थी जब उनके समुदाय के कई लोग बाहरी दुनिया से परिचित नहीं थे. आलम कहते हैं, ‘‘हमें खेती करने के लिए कहा गया. लेकिन हमें यह कला नहीं आती थी.’’ हमें फसलें बोने, उगाने और काटने को कहा जाता था, जिससे वन गुर्जर बिलकुट अनजान थे. मगर उन्हंे फसलों और मौसमों के बारे में जरूर पता था. यह अलग बता है कि पशु चराने और खेती करने के बीच कोई संबंध नहीं है. आलम तब 9 वर्ष के थे.
तब आलम को स्कूल में भर्ती कराया गया, लेकिन कुछ वर्ष बाद ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. आलम को पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी. एक बार स्कूल के प्रिंसिपल ने उन्हें बंक करते पकड़ लिया. तब सबके सामने डांट पड़ने के डर से स्कूल गए ही नहीं. अगले दो साल तक घर पर ही रहे. इस बीच उनके माता-पिता ने उसके सामने शर्त रखी, वह पढ़ाई करे या काम करे.
पक्षियों के लिए बने रसोईया
2012में राजाजी में सेंटर फॉर इकोलॉजिकल साइंसेज रिसर्च टीम के साथ काम करने वाले एक परिचित ने उन्हें एक रसोइया की जगह खाली होने के बारे में बताया. आलम को खाना बनाना नहीं आता था. मगर घर छोड़कर जंगल लौटने के इस अवसर को वह खोना नहीं चाहते थे. जैसे-तैसे खाना बनाने का काम शुरू कर दिया. लेकिन कुछ ही दिनों में वह बोर हो गए. तब इकोलॉजिस्ट सौम्या प्रसाद ने आलम को अपनी फील्डवर्क टीम में शामिल कर लिया.
प्रसाद एक जगह कहते हैं, ‘‘हमने अपनी शोध टीम में कई वन गुर्जरों को शामिल किया था, क्योंकि वे जंगल से सूक्ष्म रूप से परिचित थे. लेकिन उनके पास तकनीकी कार्य करने के लिए कौशल की कमी थी. आलम औरों से अलग था. वह एक त्वरित सीखने वाला, साक्षर था. वह पक्षियों के नाम पढ़ सकता था. उन्हें पहचान सकता था. वह बेहद आश्वस्त था और शोधकर्ताओं के साथ कदम मिलाकर चलता था. कई मायनों में, आलम अब अपने समुदाय के लिए एक रोल मॉडल हैं.’’ आलम ने तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा है.
पक्षी वैज्ञानिक और पढ़ाई साथ-साथ
आलम का मानना है कि नेचुरल साइंटिस्ट बनने के लिए केवल शैक्षणिक योग्यता ही एकमात्र कसौटी नहीं है. वह कहते हैं, जंगल को जानना और साल के अलग-अलग समय में पक्षियों के आवास के बारे में जागरूक होना महत्वपूर्ण है. आलम राजाजी के जानवरों हाथी, बाघ, तेंदुए और भालू आदि को उनकी गंध और आवाज से जानते हैं.
लेकिन आलम ने औपचारिक शिक्षा को पूरी तरह से नहीं छोड़ी है. नेचर साइंस इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं के काफी समझाने के बाद उन्होंने 2015में उत्तराखंड स्टेट ओपन स्कूल में दाखिला लिया. शुरुआत में उन्होंने 12वीं की परीक्षा पास की. उनका अगला लक्ष्य समाजशास्त्र और इतिहास में स्नातक करना है.
देहरादून स्थित तितली ट्रस्ट के संस्थापक ट्रस्टी संजय सोंधी के मुताबिक, आलम ने पक्षी पहचान के अपने कौशल में सुधार किया है. वह अब आत्मविश्वास से भारत के किसी भी पक्षी की पहचान कर सकते हैं. भले ही उसने उसे पहले नहीं देखा हो. उत्तराखंड में बहुत सारे लोग बर्डवॉचिंग के माध्यम से अपनी आजीविका चला रहे हैं. लेकिन आलम उनमें असाधारण है.
बातचीत में आलम उम्मीद जताते हैं कि वन गुर्जरों की नई नस्ल अपने जुनून से जल्द ही कृषि मजदूरों के रूप में काम करने के बजाय इसे व्यवसाय के रूप में अपना लेगी. उन्होंने कहा, जंगल से पुनर्वास के बाद हमारी संस्कृति में अचानक बदलाव आया है. हमारे पास मुख्यधारा के समाज का हिस्सा बनने का कौशल नहीं है. वह अपने गांव गैंदी खाता में होमस्टे खोलना चाहते हैं और अपने दो बच्चों को स्कूल भेजना चाहते हैं.
विकास और उजड़ते जंगल
देश के कई राज्यों की तरह उत्तराखंड भी विकास के नाम पर वनों की कटाई से जूझ रहा है. 2017 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऑल वेदर चार धाम यात्रा सड़क परियोजना के तहत 23,000 पेड़ काटे गए. आलम कहते हैं, हम कल्पना नहीं कर सकते कि पूरे जंगलों को काटने से क्या प्रभाव पड़ता है. परिणाम बहुत गंभीर होंगे.
-मैं सभी पक्षी अवलोकन करने वालों व फोटोग्राफ लेने वालों को यही मेसेज देना चाहूंगा कि आप जहां भी हों, नैतिकता के साथ बर्डिंग करें. प्रकृति का विशेष ध्यान रखे. प्ले बैक न करें. पक्षियों को चारा न दें. प्लास्टिक जंगल में न डालें और जितना हो सके, इसका कम इस्तेमाल करें.
साभार: आवाज द वॉइस