ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
किसी ने सच ही कहा है, इंसान दिल से ग़रीब या अमीर होता है, पैसों से नहीं. अभी हाल ही में कर्नाटक के फल विक्रेता हरेकला हजब्बा ने इसे साबित भी किया है. हरेकला हजब्बा करीब 10 साल से गरीब बच्चों के लिए स्कूल चलाते हैं. इस कारण उन्हें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सम्मानित भी किया है. मानव सेवा और शिक्षा में बेहतरीन कार्य करने के लिए हरेकला हजब्बा को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है. हरेकला हजब्बा संतरा बेचकर गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे रहे हैं. इस प्रयास के कारण उन्हें राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म श्री से सम्मानित किया है.
8 नवंबर 2021, राष्ट्रपति भवन खचाखच भरा हुआ था. जैसे ही मेरा नाम पुकारा गया, हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. नंगे पांव, धोती-कुर्ता पहने पद्मश्री अवॉर्ड लेने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति की तरफ बढ़ा, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री हर कोई तालियां बजा रहा था.
संतरे बेचने वाला, जो कभी स्कूल नहीं गया, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं. हमेशा जिसका लोगों ने मजाक उड़ाया. उसे इतना बड़ा अवॉर्ड… मुझे तो पद्मश्री अवॉर्ड का मतलब भी नहीं पता था। बस इतना जानता था कोई बड़ा अवॉर्ड है. मैं बार-बार हाथ जोड़े राष्ट्रपति को देख रहा था और राष्ट्रपति मुझे कैमरे की तरफ देखने के लिए बोल रहे थे.
हर अखबार में मेरी खबर छपी, फोटो छपी. बड़े-बड़े लोग मिलने आने लगे. बड़े मंचों पर बुलाने लगे, सम्मानित करने लगे.
कौन हैं हरेकला हजब्बा
हरेकला हजब्बा कर्नाटक के मैंगलोर शहर में एक संतरा विक्रेता हैं. उनकी उम्र 66 साल है. अपने गांव में स्कूल न होने की वजह से हजब्बा पढ़ाई न कर सके, लेकिन शिक्षा के प्रति समर्पण ऐसा था कि अब वो शिक्षितों के लिए भी मिसाल बनकर उभरे हैं.
हरेकला हजब्बा मंगलुरु से करीब 20 किलोमीटर दूर हरेकला गांव के निवासी हैं. जिनके माता-पिता मजदूरी करते थे. आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिलती थी. इसी वजह से स्कूल नहीं जा सका. बचपन से ही छोटा-मोटा काम करने लगा ताकि कुछ पैसे कमा सकूं.
हरेकला हजब्बा को एक जगह बीड़ी रोल करने का काम मिला. वो दिनभर मेहनत करते ज्यादा से ज्यादा बीड़ी रोल करता ताकि अधिक पैसे मिल सकें. कुछ साल काम करने के बाद उन्होनें यह काम छोड़ दिया, क्योंकि इससे घर का खर्च नहीं चल पा रहा था.
अब उनको नया काम करना था लेकिन पढ़ा-लिखा था नहीं और स्थानीय भाषा तुलू को छोड़कर और कोई भाषा बोल नहीं पाता था.
1978 की बात है. उन्हें पता चला कि मंगलुरु के पुराने बस स्टैंड पर अंग्रेज टूरिस्ट बहुत आते हैं. उनमें से ज्यादातर संतरे खरीदते हैं. अगर वो भी वहां संतरे बेचें तो अच्छी कमाई हो सकती है.
इसके बाद वो मंगलुरु बस स्टैंड गए. काफी देर तक वहां खड़े होकर, इधर-उधर घूमकर देखते रहें कि कैसे यहां संतरा बेचा जा रहा है? कितनी डिमांड है? इसमें लागत-बचत कितना है? एक हफ्ते तक लगातार वहां जाने के बाद उन्हें समझ आ गया कि इसका बिजनेस कैसे किया जा सकता है और इसमें कितना मुनाफा है.
जानिए कैसे मिली स्कूल खोलने की प्रेरणा?
हरेकला हजब्बा के मुताबिक 1994 की बात है. बस स्टैंड पर एक अंग्रेज जोड़ा मिले. वे मेरे पास आकर कुछ पूछने लगे. मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आई. शायद वे भाव पूछ रहे थे, लेकिन मैं नहीं समझ सका. काफी देर तक वे मुझे समझाने की कोशिश करते रहे.
फिर वे गुस्सा गए. झल्लाते हुए, कुछ बोलते हुए दूसरे दुकानदार के पास चले गए. मुझे बहुत तकलीफ हुई. मैं पढ़ा-लिखा नहीं था तो अंग्रेज बेइज्जत करके चले गए. घर लौटा तो काफी परेशान रहा। कई दिनों तक मन ही मन घुटन होती रही. मैं सोचता रहा कि क्या करूं कि कल को किसी और गरीब का कोई मजाक नहीं उड़ा पाए.
गांव में कोई स्कूल नहीं था. ज्यादातर बच्चों को स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाती थी. मैंने तय किया कि मैं भले नहीं पढ़ पाया, लेकिन गांव के बच्चे अब अनपढ़ नहीं रहेंगे, लेकिन मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि ये सब करूं कैसे, कोई मुझे बताने वाला भी नहीं था.
अगले दिन रोज की तरह बस स्टैंड गया. पहले संतरे बेचे और फिर कुछ पैसे बचाकर एक टाइपिस्ट के पास गया. उसे अपनी बात बताई. उसने मेरी मांग को लेकर एक अर्जी लिख दी. इसके बाद मैं अर्जी लेकर विधायक के पास गया.
मेरे हाथ में चिट्ठी देखकर विधायक हैरान रह गए. मैंने उन्हें अर्जी दी और घर लौट आया. मन ही मन खुश था कि विधायक गांव में स्कूल खुलवा देंगे, अब तो मैंने अर्जी भी दे दी है.
कुछ दिन बाद मैं फिर से विधायक के पास गया. उस दिन भी उन्होंने कहा कि हम आपकी अर्जी पर विचार कर रहे हैं. इसके बाद मैं रेगुलर उनके पास जाने लगा. कभी उनसे मुलाकात होती, कभी नहीं होती.
उसके बाद किसी ने बताया कि आपको ब्लॉक शिक्षा अधिकारी के पास जाना चाहिए. मैंने उनके ऑफिस के बारे में पता किया और संतरे बेचने के बाद समय निकालकर उनके ऑफिस पहुंच गया. मैंने उन्हें स्कूल की मांग वाली चिट्ठी दी. शिक्षा अधिकारी ने मेरी चिट्ठी पढ़ी और इतना ही कहा कि मैं देखता हूं क्या हो सकता है.
कुछ दिनों बाद मुझे समझ आ गया कि ये लोग मुझे बस इस दफ्तर से उस दफ्तर चक्कर लगवा रहे हैं. इसमें बहुत ज्यादा पैसे और समय खर्च होता था. मैंने समय बचाने के लिए गांव जाना बंद कर दिया. संतरे बेचने के बाद बस स्टैंड पर ही सो जाता था. दिन भर खाना नहीं खाता था। बस रात में खाना खाता था, ताकि कुछ पैसे बचे.
मैं धूप-बारिश हर मौसम में अर्जी लेकर सरकारी दफ्तर के बाहर खड़ा रहता था. कभी अधिकारी मुझसे मिलते तो कभी भगा देते थे. हर दिन आने की वजह से शिक्षा विभाग के ज्यादातर लोग मुझे पहचान भी गए थे.
कई लोग मेरी तारीफ करते तो कई लोग पागल समझते थे. मेरा मजाक उड़ाते थे, लेकिन मुझे इन सब बातों का फर्क नहीं पड़ता था. मैं बस इतना ही चाहता था कि जैसे भी हो गांव में एक स्कूल शुरू हो जाए. बाकी लोगों को जो कहना है कहते रहें.
आखिरकार मुझे कामयाबी मिली. जून 2000 में मेरी अर्जी पर गांव में स्कूल के लिए जमीन अलॉट की गई। एक टीचर भी दिया गया. हालांकि ये सब कागजों में था. लड़ाई अभी बाकी थी। काफी दिनों तक काम ऐसे ही लटका रहा.
मुझे लगा इस तरह सिस्टम काम करता रहा, तो कभी स्कूल शुरू नहीं हो पाएगा. मुझे एक बात सूझी. पास में ही एक मदरसा था. एक दिन मैं मदरसे वालों के पास गया. उनसे कहा सरकार की तरफ से टीचर मिल गया है, आप लोग कुछ दिन के लिए अपनी जमीन दे दीजिए.
वे लोग मान गए. इसके बाद मैं डीसी के पास गया. उनसे कहा कि मदरसे के लोग जगह देने के लिए तैयार हैं. आप टीचर उपलब्ध करा दीजिए. जब तक हमारा स्कूल नहीं बनता, गांव के बच्चे मदरसे में ही पढ़ लेंगे.
डीसी मदरसे में स्कूल चलाने के लिए राजी हो गए. 28 बच्चों के साथ वहां पढ़ाई शुरू हुई. इसके बाद 2001 में स्कूल के लिए 1.33 एकड़ जमीन मिल गई. अब मैं दिन-रात उसके भवन बनवाने में जुट गया.
अपने गांव के साथ ही दूसरे गांवों में जाकर रुपए इकट्ठे करने लगा. कई लोगों ने सहयोग दिया .मैं जितना कमाता था, सब स्कूल बनाने में खर्च कर देता था. धीरे-धीरे स्कूल बनने लगा.
मेरा घर छप्पर का था. बारिश होती तो हम भीग जाते थे. एक ही धोती-कुर्ता था. उसे ही बार-बार साफ करके पहनता था. ताकि ज्यादा पैसे बचा सकूं. कुछ ही सालों में सबकी कोशिशों के बाद स्कूल बनकर तैयार हो गया.
और फिर जब शुरू किया स्कूल
स्कूल बन जाने के बाद गांव के बच्चे भी उत्साहित होकर पढ़ाई करने लगे. मेरे लिए यह कोई व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं थी. मैं हर दिन यहीं सोचता था कि अब आगे इस काम को कैसे ले जाऊं.
इसी बीच तुलू भाषा के एक पत्रकार ने मेरे ऊपर स्टोरी की. धीरे-धीरे कन्नड़ अखबारों में भी मेरी खबर छपने लगी. लोग मुझे जानने लगे. स्थानीय विधायक ने भी बाद में सपोर्ट किया। मेरे काम की तारीफ की. इसके बाद 2020 में मुझे पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा हुई. तब मुझे पता भी नहीं था कि यह क्या होता है, क्यों दिया जाता है. लोगों की बातें सुनकर बस इतना समझ आया कि कोई बड़ा पुरस्कार है.
मेरी कहानी पढ़ने के बाद एक शख्स ने मेरा घर पक्का करवा दिया, लेकिन मैं उसका नाम नहीं जानता. उसने बताया ही नहीं. अब मैं गांव में बच्चों के लिए कॉलेज खुलवाना चाहता हूं. दिन-रात उसी कोशिश में लगा हूं. ताकि आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें दूर नहीं जाना पड़े.
अब मैं गांव के बच्चों को स्कूल जाते हुए देखता हूं. उन्हें पढ़ते हुए देखता हूं. बेहतर करते हुए देखता हूं. मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी यही है. इन्हें देखकर मैं सालों की थकान और संघर्ष भूल जाता हूं. 65 साल का हो गया हूं, लेकिन आज भी मंगलुरु पैदल ही जाता हूं.
Harekala Hajabba was in a line on a ration shop when authorities informed him that he got #Padma Shri. This fruit seller from Dakshin Kannada is educating poor children in his village of Newpadapu from a decade in a mosque. Doing all the efforts including spending his savings. pic.twitter.com/rufL3RZ15o
— Parveen Kaswan, IFS (@ParveenKaswan) January 26, 2020
हरेकला हजब्बा की कहानी को IFS अधिकारी परवीन कासवान ने अपने ट्विटर अकाउंट पर शेयर किया है. उन्होंने शेयर करते हुए लिखा है- जब हजब्बा को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की खबर मिली थी, तब वो एक राशन की दुकान पर लाइन पर लगे हुए थे. उन्हें यह ख़बर सुनकर हैरानी हुई थी.
वाकई में कुछ लोग इतिहास रचने आते हैं. ऐसे में हरेकला हजब्बा हमारे लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं हैं.
साभार: आवाज द वॉइस