प्रो. अख्तरुल वासे
हिन्दुस्तानी मुसलमान जिस परेशानी के दौर से गुजर रहे हैं, वह किसी से छिपा हुआ नहीं. एक तरफ मुट्ठी भर लोग हैं, जो इस देश को बंधक बना लेना चाहते हैं और स्वर्ग समान हिन्दुस्तान को अपनी सांप्रदायिकता और फासीवाद की प्रयोगशाला बना देना चाहते हैं. इस देश में कौन क्या खाए-पिए, क्या पहने-ओढ़े, कैसे रहे-सहे और चले-फिरे, इसका फैसला वह स्वयं नहीं, बल्कि उन मुट्ठी भर लोगों के अनुसार करे. अब जबकि कुछ मस्जिदों पर हमले हो रहे हैं, अपनी बहादुरी दिखाने के लिए उन पर एक धर्म-विशेष के झंडे फहराए जा रहे हैं.
रैलियों और सभाओं में भड़काऊ और घृणित नारों के साथ प्रदर्शन हो रहे हैं और उन सब पर सितम यह कि पुलिस और सरकार भी उन्हीं का साथ दे रही है. यहां तक कि एक सम्मानित जज ने यह फैसला भी सुना दिया कि अगर मुस्कुरा कर गलत बात भी कही जाए, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं.
अब सरकारें न्यायपालिका की अनदेखी करके कानून अपने हाथ में लेकर एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों के घरों को बुलडोजर से गिरा रही हैं और एक राज्य के गृहमंत्री ने तो अहंकार की तमाम सीमाओं को पार करते हुए यह तक कह दिया कि जिन घरों से पत्थर आएंगे, उन्हें पत्थरों में बदल दिया जाएगा.
एक मुख्यमंत्री ने तो यह भी कहा कि दंगाइयों को बख्शा नहीं जाएगा. हम भी उनके इस विचार का समर्थन करते हैं कि दंगाइयों को बख्शा नहीं जाना चाहिए, लेकिन कौन दंगाई है, कौन नहीं, इसका फैसला अदालतें करेंगी ना कि मुख्यमंत्री और उनके अधीनस्थ सरकारी कर्मचारी.
इस माहौल में भी सिविल सोसायटी के लोगों ने जिस साहस और दृढ़ संकल्प के साथ इन सबके खिलाफ आवाज उठाई है, वह प्रशंसनीय है. इतना ही नहीं, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदुयुरप्पा जो कि दक्षिण भारत में भाजपा के उदय में सबसे बड़े किरदार माने जाते हैं, ने कर्नाटक सरकार से कहा है कि मुसलमानों को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीने और रहने दिया जाए. यही आवाज कर्नाटक में सत्तारूढ़ दल के दो विधायकों ने भी उठाई है.
इतना ही नहीं मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और राजस्थान के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी इस एकतरफा उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलंद की है.
लेकिन मुसलमानों की समस्या यह है कि वे न केवल अपने विरोधियों से परेशान हैं, उनके कुछ अपने ही लोग सोशल मीडिया पर अपने बयानों के माध्यम से लोगों को भड़का रहे हैं, जिससे कि मुसलामानों के विरोधियों के हाथ मजबूत हों और वह इस्लाम और मुसलमानों को इसी तरह दंगों और सांप्रदायिकता के द्वारा निशाना बनाते रहें. इसी तरह का एक वीडियो हमें हमारे कुछ गैर-मुस्लिम दोस्तों ने भेजा है, जिनके धर्मनिरपेक्ष, देश भक्ति और मुसलमान दोस्त होने में कोई संदेह नहीं. जिसमें लगभग सात लोगों ने बार-बार कहा है कि गैर-मुस्लिमों को उनके त्योहारों पर बधाई देना सही नहीं है. संयोग से उनमें से अधिकतर वह लोग हैं, जो मुस्लिम बहुल समाजों में विशेषकर पड़ोसी देश पाकिस्तान में रह रहे हैं और जो कुरआन व हदीस से ज्यादा अपनी बात को वरीयता देते हैं. इस मुद्दे में कुरआन और हदीस की कोई स्पष्ट अनुमति या रोक नहीं है. एक अरबी शायर का बहुत अच्छा शेर है, जिसका अनुवाद कुछ यूं है कि ‘‘लोगों के दिलों पर राज करना है तो हुस्न-ए-सुलूक (शिष्टाचार) से पेश आओ, ऐसा बहुत हुआ है कि हुस्न-ए-सुलूक ने इंसानों पर राज किया है.’’
पवित्र कुरान के सूरह अन-नहल की आयत (श्लोक) नंबर 90 में कहा गया है कि ‘‘अल्लाह न्याय, परोपकार और अच्छे संबंध का हुक्म देता है.’’ इसी तरह हदीस की किताब तिर्मीजी और मुसनद अहमद में भी अल्लाह के रसूल सल्ल. ने हजरत अबूजर को वसीयत फरमाई, ‘‘जहां भी रहो, अल्लाह से डरो, गुनाह के बाद नेकी कर लिया करो, ताकि गुनाह मिट जाए और लोगों के साथ अच्छे व्यवहार से पेश आओ.’’ इस हदीस में हजरत मुहम्मद सल्ल. ने लोगों के साथ, चाहे वह मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम, शिष्टाचार की वसीयत की. शिष्टाचार केवल मुसलमानों के साथ ही नहीं है.
पैगंबर मुहम्मद सल्ल. की जिंदगी से ऐसे कई उदाहरण मिल जाते हैं, जिन्होंने गैर-मुस्लिमों के प्रति शिष्टाचार और भलाई की ओर हमारा मार्गदर्शन किया है. उदाहरण के तौर पर बुखारी और मुस्लिम के अनुसार, हजरत अबू-बकर रजि. की साहबजादी हजरत अस्मा रजि. की वालिदा (माता) जो इस्लाम नहीं लाई थीं, उनके यहां आईं, उन्होंने हजरत मुहम्मद सल्ल से पूछा कि क्या मैं अपनी मां के साथ शिष्टाचार का व्यवहार कर सकती हूं? हजरत मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया, हां, अपनी मां के साथ शिष्टाचार का व्यवहार करो.
इसी तरह हजरत मुहम्मद सल्ल. की जिंदगी में ही नजरान के ईसाइयों का एक प्रतिनिधिमंडल आपकी सेवा में उपस्थित हुआ. हजरत मुहम्मद सल्ल. ने न केवल उनका स्वागत किया, उनकी मेजबानी भी की.
उन्हें उनके धर्म के अनुसार इबादत (पूजा) करने की इजाजत भी दी. यही कारण है कि कुरआन में आपको ‘खुल्क-ए-अजीम’ (महान नैतिकता वाला) कहा गया है. इसी तरह कुरआन में अल्लाह ने फरमाया है, ‘‘और जब तुम्हें सलामती की कोई दुआ दी जाए, तो तुम भी सलामती की उससे बेहतर दुआ दो.’’
इसी संबंध में 28 अगस्त से 1 सितंबर 2000 में यूरोपीय इफ्ता काउंसिल ने प्रसिद्ध इस्लामी धर्मशास्त्र (शरीअत) के विद्वान और इस्लामी दुनिया के विद्वानों में अग्रणी इमाम यूसुफ अल-करजावी (जो मिस्र मूल के हैं परंतु वर्तमान में कतर में रह रहे हैं) की अध्यक्षता में इस मुद्दे पर चिंतन करने के बाद यह फैसला किया गया कि सद्भावना की अभिव्यक्ति के लिए गैर-मुस्लिमों को उनके त्यौहारों के दिन बधाई व शुभकामनाएं देना जायज ही नहीं, पसंदीदा है.
इस पर एक हिन्दुस्तानी मुसलमान मौलाना याह्या नोमानी ने कहा है कि वर्तमान में जब मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी गैर-मुस्लिम देशों में रहने लगी है, बड़ी संख्या में गैर-मुस्लिम मुसलमानों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, बल्कि उनमें एक बड़ी आबादी मुसलमानों के हक के लिए लड़ती है–इन देशों में मुसलमानों के अस्तित्व के लिए गैर-मुस्लिमों के साथ अच्छे संबंधों का मार्ग प्रशस्त करना आवश्यक है.
यूरोपीय इफ्ता काउंसिल के इसी निर्णय का समर्थन करते हुए नौजवान आलिम-ए-दीन (इस्लामी धर्मविद्), नदवा के फाजिल, काजी मुजाहिदुल इस्लाम कासमी द्वारा प्रशिक्षित और वर्तमान में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी हैदराबाद के इस्लामिक अध्ययन विभाग में प्रोफेसर व अध्यक्ष मौलाना फहीम अख्तर नदवी का कहना है, ‘‘समस्या की पृष्ठभूमि यह है कि समाज में अलग-अलग समय पर मुसलमानों के संबंध गैर-मुस्लिमों के साथ स्थापित हो जाते हैं. स्कूलों में शिक्षकों, छात्रों और साथियों के साथ गहरे रिश्ते बन जाते हैं. नौकरी के वक्त सहकर्मियों के साथ मेल-जोल होते हैं. इलाज के दौरान गैर-मुस्लिम डॉक्टर की निष्ठा मरीज के साथ मेल-जोल पैदा करती है. कभी घर के पड़ोस में अच्छे स्वभाव वाले गैर-मुस्लिम होते हैं–ऐसे अवसरों पर उनको बधाई दी जा सकती है.
प्रो. फहीम अख्तर नदवी के अनुसार, काउंसिल का यह फतवा न केवल इस्लाम के गुणों और परोपकारी चरित्र की अभिव्यक्ति है, मौजूदा वक्त में तेजी से बदलती परिस्थितियों में यह मुसलमानों की एक दीनी जरूरत भी है.
इस्लाम प्रकृति के नियमों पर आधारित धर्म, पूर्ण और एक संतुलित जीवन प्रणाली और उच्च नैतिक न्याय पर आधारित है. उन्होंने इस फतवे को शरीअत के स्वभाव की अभिव्यक्ति, इस्लामी नैतिकता का एक मॉडल और वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में इस्लाम की आवश्यकताओं के लिए जरूरी बताते हुए कहा है कि आवश्यक है कि हमारे मुल्क के अंदर भी समाजी रिश्तों को मजबूत करने वाले इस व्यवहार को दृढ़ता के साथ अपनाया जाना चाहिए.
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक और मशहूर आलिम-ए-दीन (धर्मगुरू) , धार्मिक विचारक और जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द के सेक्रेट्री डॉ. मुहम्मद रजीउल-इस्लाम नदवी ने और ज्यादा जोर देकर कहा, ‘‘किसी समाज में जो इंसान रहते हैं, उनका आपस में मिलना-जुलना, एक दूसरे की खुशियों में शामिल होना, एक दूसरे का गम बांटना और एक दूसरे की आवश्यकताएं पूरी करना प्रकृति का स्वभाव है. किसी भी सभ्य समाज की यही पहचान होती है. जिस समाज में यह मूल्य नहीं है, उसे असभ्य समाज कहा जाता है.
मानव संबंधों को मजबूत बनाने में उत्सवों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. यह उत्सव सामाजिक भी होते है और धार्मिक भी. गैर-मुस्लिमों के सामाजिक कार्यों में भाग लेने में कोई बुराई नहीं.
यदि नाजायज और अशोभनीय काम न किए जा रहे हों. हालांकि, इन धार्मिक समारोहों और त्योहारों का वह हिस्सा जो सामाजिक है, जिसमें करीबी और संबंधित लोगों से केवल मुलाकात के लिए प्रोग्राम आयोजित किए जाते हैं और सांप्रदायिक सद्भाव दिखाने के लिए दूसरे धर्मों के लोगों को बुलाया जाता है, मुसलमान उसमें भाग ले सकते हैं. हालांकि, इन अवसरों पर उनके लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे खाने-पीने के मामले में इस्लामी शिक्षाओं का पालन करें. अगर खाने की चीजों में किसी हराम जानवर का गोश्त, शराब या अन्य नशीले पेय शामिल हों, तो उनसे बचें.
डॉ. रजी-उल-इस्लाम नदवी ने आगे स्पष्ट किया कि जहां तक गैर-मुसलमानों को उनके त्योहारों के अवसर पर बधाई देने की बात है, इसे आम तौर पर इस्लामी न्यायशास्त्र और फतवों की किताबों में अवैध घोषित किया गया है.
यह तर्क दिया गया है कि उन्हें बधाई देना अविश्वास और बहुदेववाद की महानता की अभिव्यक्ति है. यह तर्क मजबूत नहीं लगता. अभिवादन एक सामाजिक कार्य है, जो सांसारिक मामलों में अच्छे व्यवहार को दर्शाता है जिसकी शिक्षा कुरआन व हदीस में दी गई है.
यूरोपीय इफ्ता काउंसिल के फतवे की रोशनी में, दिसंबर 2019 से मासिक ‘‘जिंदगी-ए-नव’’ के अंक से लिए गए भारतीय विद्वानों की इस बहस के सारांश के साथ, हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि जहां तक शुद्ध धार्मिक संस्कारों की प्रथा है. इसमें सभी को अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता है. कोई भी मुसलमान इसमें भाग नहीं लेगा, क्योंकि इस्लाम तौहीद का धर्म है और इस संबंध में कुरान सीधे कहता हैः ‘‘तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए है और मेरा धर्म मेरे लिए.’’ आप किसी गैर-मुसलमान को अपने तरीके से इबादत करने के लिए मजबूर नहीं करेंगे और न ही उसी तरह उसकी इबादत में शामिल होंगे, क्योंकि कुरान के ही शब्दों में ‘‘धर्म में कोई जोर-जबरदस्ती नहीं.’’
अब रहा सवाल उस वीडियो का जिसके हवाले से यह लेख लिखा गया, वह मूलरूप से उसी बहुसंख्यक समाज के लोग हैं, जो अपनी राय को इस्लाम समझते हैं और इस तरह के विचार व्यक्त करके गैर-मुस्लिम बहुसंख्यक समाजों में बसने वाले मुसलमानों के लिए परेशानी पैदा करना अपना कर्तव्य समझते हैं. इस तरह इस्लाम और मुस्लिम विरोधी तत्वों के हाथ मजबूत करते हैं.
(लेखक जामिया मिल्लिा इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)
साभार: आवाज द वॉइस