मोहम्मद अकरम / मोतिहारी ( बिहार )
क्या आपको पता है कि नाथूराम गोडसे से पहले भी महात्मा गांधी की हत्या करने की कोशिश की गई थी, वह भी बिहार में! जी हां, यह घटना सौ प्रतिशत सत्य है. मगर बापू की जान बचाने वाले बत्तख मियां के पोते को मलाल है कि देश की इतनी महत्वपूर्ण जान बचाने वाले को बिसरा दिया गया है. आज की तारीख में उनके परिजनों को याद करना भी जरूरी नहीं समझा जाता.
आज महात्मा गांधी की यौमे-पैदाइश है. इस अवसर पर देश भर में कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं. मगर आज भी बत्तख मियां के परिवार की सुध किसी ने नहीं ली.
कहानी जान बचाने की
आइए जानते हैं कि महात्मा गांधी 1917 में जब चंपारण पहुंचे पर बत्तख मियां ने उनकी जान कैसे बचाई थी? बताते हैं, किसानों पर अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार को देखते हुए चंपारण के ही राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर 13 अप्रैल, 1927 को महात्मा गांधी चम्पारण पहुंचे थे. इस दौरान बापू ने लोगों की परेशानी सुनी. अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की तैयार करने लगे. ये देख फैक्ट्रियों के मैनेजरों के नेता इरविन ने महात्मा गांधी को बातचीत के लिए बुलाया. इस दौरान इरविन ने महत्मा गांधी की हत्या की साजिश रची. गांधी जी के खाने में जहर देकर मारने की योजना बनाई गई.
उस समय मोतिहारी से कुछ किलोमीटर दूर सिसवा अजगरी के रहने वाले बत्तख मियां अंसारी, इरविन के रसोईया हुआ करते थे. उनका परिवार तब भी बेहद गरीब था. इरविन ने बापू के खाने में जहर देने के लिए बत्तख मियां को तैयार किया. मगर बत्तख मियां का दिल नहीं माना. अंग्रेजों के धमकाने, लालच देने के बावजूद उनका दिल गांधी जी को जहर देने को नहीं माना. वे ट्रे पर जहर युक्त दूध का गिलास लेकर गांधी के पास गए जरूर, पर उन्हें देखते ही रो पड़े.
गांधी जी ने जब उन्हें रोता देखा तो कारण पूछा. तब बत्तख मियां अंसारी ने उन्हें सारी बातें बता दीं. इस तरह अंग्रेजों के प्रयास के बावजूद गांधी जी की हत्या कराने में नाकाम रहे. दूसरी तरफ, यह बातें जब अंग्रेजों को पता चलीं तो वे बेहद गुस्सा हुए. बत्तख मियां के परिवार पर जुल्म ढहाए गए. मकान तोड़ दिया गया.
परिवार के लोगों को प्रताड़ित किया गया. बत्तख मियां को 17 साल तक जेल में रखा गया. परिजनों की शिकायत है कि गांधी जी को बचाने की कीमत उन्हें आज तक चुकानी पड़ रही है.
इतिहास में जगह नहीं
महात्मा गांधी के चंपारण आगमन की यादें तो इतिहास के कई पुस्तकों में दर्ज हैं. मगर बत्तख मियां अंसारी कहीं किसी पन्नों में दर्ज नहीं हैं. यहां तक कि गांधी जी की आत्मकथा में भी अंसारी का कहीं नाम दर्ज नहीं है. देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की चम्पारण यात्रा पर लिखी गई किताब ‘चम्पारण में महात्मा गांधी‘‘ में भी इसका जिक्र करना जरूरी नहीं समझा गया. बत्तख मियां अंसारी के पोते कहते हैं, ‘‘उनके दादा की जगह कोई और होता तो शायद इस तरह उन्हें भुलाया नहीं जाता.’’
राजेंद्र प्रसाद ने दिया था सम्मान
बत्तख मियां के पोते चिराग अंसारी ने ‘आवाज द वाॅयस’ से बात करते हुए कहा, “देश आजाद होने के बाद जब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद 1957 में मोतिहारी जनसभा को संबोधित करने आए थे. उस दौरान वहां बत्तख मियां भी मौजूद थे. उनपर नजर पड़ते ही राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें आवाज दी,‘‘ बत्तख भाई, कैसे हो?”
फिर उन्हें मंच पर बुलाया. काफी देर तक बातें की. मोतिहारी से लौटने के बाद राजेंद्र प्रसाद ने उनके बेटे जान मियां अंसारी को राष्ट्रपति भवन बुलाया. राजेंद्र प्रसाद ने बिहार सरकार को पत्र लिखकर बत्तख मियां अंसारी को 35 एकड़ जमीन देने के निर्देश दिए. मगर उनके आदेश पर अमल नहीं किया गया.
आवाज द वॅायस से बात करते हुए उनके पड़पोते चिराग अंसारी ने बताया कि 1955 में 50 एकड़ देने की बात कही गई. मियां अंसारी की 1958 में मौत होने के बाद 1962 में 35 एकड़ जमीन देने के लिए बिहार सरकार से कहा गया.
अफसोस है कि अब तक सिर्फ 5 एकड़ जमीन ही बत्तख मियां को उनके जन्मस्थल सिसवा अजगरी में मिली है. इस बारे में फरियाद लेकर परिवार के लोग कई बार राष्ट्रपति भवन, बिहार सरकार और जिला अधिकारी के दफ्तरों के चक्कर लगा चुके हैं, पर उनकी कोई नहीं सुनता.
वह शिकायती लहजे में कहते हैं, ‘‘बापू की जान बचाने वाले को ही सभी ने भुला दिया. उनकी मजार पर हर साल प्रोग्राम होता है, पर चादरपोशी को न तो सरकार का और न ही किसी सियासी दल का नुमाइंदा वहां पहुंचता है.” बत्तख मियां के तीन लड़केे रशीद मियां, शेर मोहम्मद मियां और जान मोहम्मद मियां हैं.
इनके बच्चे आज भी गरीबी के कारण दूसरों के यहां काम करने को मजबूर हैं. फिर भी उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी है. उन्हें लगता है एक न एक दिन बत्तख मियां के परिवार की सुध अवश्य ली जाएगी
साभार: आवाज द वॉइस